अयोध्या में रामलला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह की जबरदस्त तैयारियां चल रही हैं. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समारोह में शमिल होने के लिए 22 जनवरी को अयोध्या पहुंचेंगे. हालांकि, राम मंदिर 5, 10 या 15 साल के प्रयासों से नहीं बना है. इसके लिए दशकों से कोशिशें की जा रही थीं. इसकी शुरुआत बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद के नीचे रामलला की मूर्ति रखने से हुई थी. ये साल 1949 के 23 दिसंबर की सुबह थी, जब अयोध्या में अचानक हर तरफ ‘प्रकट भये कृपाला’ की गूंज सुनाई देने लगी थी. बाबरी मस्जिद में राम मूर्ति रखवाने की योजना इससे काफी पहले से ही बननी शुरू हो गई थी. इस योजना में एक राजा, एक महंत और एक अफसर की अहम भूमिका थी. ये तीनों काफी अच्छे दोस्त थे.
राम मंदिर पहले सिर्फ एक विचार था, जिसने अपने वाले वर्षों में भारत की राजनीतिक विचारधारा हो ही बदल कर रख दिया. इसकी कल्पना सबसे पहले तीन दोस्तों बलरामपुर रियासत के महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह, महंत दिग्विजय नाथ और केके नायर के दिमाग में उठी थी. ये तीनों अपनी हिंदूवादी सोच के साथ ही लॉन टेनिस को लेकर अपने प्रेम के कारण भी अच्छे मित्र बन गए थे. तीनों में सबसे छोटे महाराजा पतेश्वरी का जन्म 1 जनवरी 1914 को हुआ था. वह एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश अधिकारी कर्नल हैनसन के संरक्षण में बड़े हुए थे. उनकी पढ़ाई लिखाई अजमेर के मेयो प्रिंस कॉलेज में हुई थी. उनकी पढ़ाई 1935 में पूरी हुई.
कैसे मिले केके नायर, महाराजा और महंत
भारतीय सिविल सेवा अधिकारी केके नायर अगस्त 1946 में गोंडा पहुंचे थे. उन्हें भी टेनिस खेलने का काफी शौक का. टेनिस खेलने के दौरान ही उनकी मुलाकात और फिर मित्रता महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह से हुई थी. नायर का जन्म 11 सितंबर 1907 को केरल के अलेप्पी में हुआ था. जुलाई 1947 में नायर का ट्रांसफर गोंडा से बाहर हो गया, लेकिन टेनिस की वजह से शुरू हुई उनकी दोस्ती कायम रही. वहीं, महंत दिग्विजय नाथ केके नायर और महाराजा पाटेश्वरी से उम्र में काफी बड़े थे. वह काफी शांत स्वभाव के कूटनीति में माहिर और प्रतिष्ठित व्यक्ति थे. नायर और महाराजा महंत दिग्विजय को धार्मिक नेता व बुजुर्ग के तौर पर काफी सम्मान देते थे.
अयोध्या में राम मंदिर का विचार सबसे पहले बलरामपुर रियासत के महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह, महंत दिग्विजय नाथ और केके नायर के दिमाग में आया था.
महाराजा पाटेश्वरी के यज्ञ में हुई मुलाकात
महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ने 1947 के शुरुआती समय में अपन रियासत बलरामपुर में एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया. इसमें महंत दिग्विजय नाथ के अलावा स्वामी करपात्री महाराज भी पहुंचे थे. करपात्री महाराज एक संन्यासी थे, जो आदि शंकराचार्य के स्थापित संप्रदायों में एक दांडियों से जुड़े थे. आजादी की पूर्व संध्या पर उन्होंने अपनी राजनीतिक इच्छाओं को जाहिर कर दिया था. उन्होंने 1948 में राजनीतिक दल राम राज्य परिषद भी बनाया. महाराजा के यज्ञ में धर्म गुरुओं के अलावा केके नायर भी मौजूद थे.
यज्ञ के आखिरी दिन बनी योजना
1991 में हिंदू महासभा के साप्ताहिक ‘हिंदू सभा वार्ता’ में एक लेख छापा गया. इसमें महंत दिग्विजय नाथ, केके नायर और स्वामी करपात्री के बीच हुई बातचीत का विस्तार से जिक्र किया गया है. इसमें बताया गया है कि कैसे उन्होंने सबसे पहले एक अस्पष्ट विचार को गंभीर आकार देना शुरू किया, जिसने बाद में अमलीजामा पहना तो पूरा देश हिल गया. लेख में लिखा गया था कि यज्ञ के आखिरी दिन महंत दिग्विजय नाथ ने विनायक दामोदर सावरकर के विचारों के मुताबिक हिंदुओं के धार्मिक स्थानों को विदेशियों के कब्जे से मुक्त कराने के विचार पर चर्चा की. इस विचार पर करपात्री महाराज और केके नायर पूरी तरह से सहमत थे.
नायर का वादा, सब कर दूंगा बलिदान
महंत दिग्विजय नाथ के प्रस्ताव पर गंभीर विचार करने का सभी ने वादा किया. नायर गोंडा के जिला मुख्यालय रवाना हो गए. ‘हिंदू सभा वार्ता’ के लेख के मुताबिक, अगले दिन बलरामपुर में यज्ञ स्थल पर पहुंचकर नायर सीधे स्वामी करपात्री और महंत दिग्विजय नाथ के पास गए. इसके बाद एक बार फिर इस मसले पर चर्चा की गई. इस बार महंत दिग्विजय नाथ ने वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर, मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और अयोध्या में रामजन्मभूमि को वापस पाने की रणनीति सभी के सामने रखी. नायर ने दिग्विजय नाथ से वादा किया कि वह इस काम को पूरा करने के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर देंगे.
आइसीएस अफसर केके नायर ने फैजाबाद पहुंचते ही अपने सहायक गुरु दत्त के साथ मिलकर योजना पर काम शुरू कर दिया.
गुरु दत्त खुद को मानते थे भगवान का आदमी
नायर ने 1 जून 1949 को फैजाबाद के जिलाधिकारी का कार्यभार संभाला. वह फैजाबाद के उपायुक्त भी थे. एक अन्य जिलाधिकारी गुरु दत्त सिंह केके नायर के जबरदस्त समर्थक थे. वह फैजाबाद के सिटी मजिस्ट्रेट थे. साथ ही डिप्टी कमिश्नर के सहायक के तौर पर काम करते थे. जाति से राजपूत गुरु दत्त खुद को ‘भगवान का आदमी’ मानते थे. उनका मानना था कि ‘हिंदू धर्म का अस्तित्व’ और उनका ‘खुद का अस्तित्व’ उन हिंदुओं की वजह से खतरे में है, जो कांग्रेस पर हावी थे. उनका मानना था कि कांग्रेस के भारतीय समाज को धर्मनिरपेक्ष बनाने के कार्यक्रम से हिंदुओं को बड़ा खतरा है.
गुरु दत्त और नायर ने उठाया पहला कदम
केके नायर और गुरुदत्त ने सबसे पहले बाबरी मस्जिद परिसर में मौजूद राम चबूतरे पर एक राम मंदिर बनाने के अभियान पर काम शुरू किया. इसके लिए उन्होंने चबूतरा पर भव्य मंदिर बनाने की स्थानीय हिंदुओं की मांग के अनुरोध उत्तर प्रदेश सरकार के लखनऊ कार्यालयों को भेजना शुरू किया. अनुरोध के जवाब में प्रदेश सरकार के उपसचिव केहर सिंह ने 20 जुलाई 1949 को नायर को अनुकूल प्रारंभिक रिपोर्ट और मामले में उनकी सिफारिश के लिए एक चिट्ठी लिखी. चिट्ठी में लिखा था, ‘यह भी बताएं कि जिस भूमि पर मंदिर प्रस्तावित है, क्या वो नगरपालिका की जमीन है?’
गुरु दत्त की जांच, मंदिर निर्माण को मंजूरी
नायर ने राज्य सरकार से चिट्ठी मिलने के बाद नायर ने अपने सहायक गुरु दत्त सिंह को घटनास्थल का दौरा कर रिपोर्ट भेजने को कहा. गुरु दत्त सिंह ने 10 अक्टूबर 1949 को नायर को भेजी रिपोर्ट में चबूतरा पर भव्य मंदिर के निर्माण की सिफारिश की. उन्होंने रिपोर्ट में लिखा, ‘मैंने मौके पर जाकर निरीक्षण किया. मंदिर और मस्जिद दोनों अगल-बगल ही हैं. यहां हिंदू और मुस्लिम अपने संस्कार व धार्मिक समारोह करते हैं. हिंदू समुदाय ने मौजूदा छोटे मंदिर की जगह पर विशल मंदिर बनाने के लिए आवेदन दिया है. इसमें कोई अड़चन नहीं है. लिहाजा, भव्य मंदिर बनाने की मंजूरी दी जा सकती है. जिस भूमि पर मंदिर बनाया जाना है, वो सरकारी जमीन है.’
बाबरी मस्जिद के मुख्य गुंबद में 23 दिसंबर की अलसुबह रामलला की प्रतिमा रख दी गई. (File Photo)
फिर शुरू हुआ अंतिम चरण पर अमल
काफी प्रयासों के बाद भी नायर और गुरु दत्त सिंह को अपनी योजना को पूरा करने में सफलता नहीं मिली. इसके बाद भी उन्होंने अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने से नहीं रोका. दोनों अधिकारियों को हिंदू महासभा से जुड़े लोग काफी पसंद करने लगे थे. हिंदू महासभा की फैजाबाद इकाई के प्रमुख और महंत दिग्विजय नाथ के भरोसेमंद लेफ्टिनेंट गोपाल सिंह विशारद ने नायर व गुरु दत्त सिंह के साथ संबंध बना लिए. बाद में तय हुआ कि मस्जिद के मुख्य गुंबद के नीचे राम मूर्ति स्थापित की जाए. मस्जिद में मूर्ति स्थापित करने वाले अभिराम दास के चचेरे भाई अवध किशोर झा ने बताया था कि 23 दिसंबर 1949 की सुबह मस्जिद के अंदर दीपक टिमटिमा रहा था. अभिराम दास रामलला की मूर्ति पकड़े फर्श पर बैठे थे.
नायर और गुरु दत्त को लेना पड़ा रिटायरमेंट
अवध किशोर ने बताया था कि अभिराम दास के नजदीक ही तीन-चार साधु बैठे थे. उनके अलावा इंदुशेखर झा और युगल किशोर झा भी बैठे थे. थोड़ी दूरी पर केके नायर खड़े थे. सुबह की पहली किरण के साथ अयोध्या में हल्ला मच गया कि बाबरी मस्जिद में रामलला प्रकट हुए हैं. हर तरफ लोगों ने ‘भय प्रकट कृपाला’ गाना शुरू कर दिया. नायर के लिए फैजाबाद का कार्यकाल उनकी सरकारी सेवा के आखिरी साल साबित हुआ. माना गया कि उन्होंने ही योजना बनाकर 22 दिसंबर 1949 की रात बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखवाई थी. इसके बाद केके नायर को अपने सहायक गुरु दत्त सिंह के साथ सेवानिवृत्त होने के लिए मजबूर होना पड़ा. बाद में नायर, उनकी पत्नी शकुंतला नायर सांसद बने. वहीं, उनका ड्राइवर विधायक बना.
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FIRST PUBLISHED : January 16, 2024, 16:13 IST